शुभम
सत्य से बड़ा तो ईश्वर भी नहीं
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व क्या है?
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व हिंदू धर्म की पौराणिक कथाओं और धार्मिक परंपराओं से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। यह त्योहार मुख्य रूप से भगवान शिव और गंगा माँ से जुड़ा हुआ है और इसे त्रिपुरासुर वध और गंगा अवतरण की घटनाओं से जोड़ा जाता है। देव दिवाली का आयोजन दिवाली के 15 दिन बाद, कृष्ण पक्ष की पूर्णिमा को होता है और यह विशेष रूप से वाराणसी (बनारस) में अत्यधिक धूमधाम से मनाया जाता है। आइए जानते हैं देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व:
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व भगवान शिव की विजय, गंगा अवतरण, और देवताओं के साथ धार्मिक मिलन से जुड़ा हुआ है। यह दिन अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, और असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। इसके माध्यम से हम भगवान शिव के दिव्य कार्यों और गंगा की पवित्रता का स्मरण करते हैं और अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। वाराणसी जैसे स्थानों पर यह पर्व धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व मुख्य रूप से त्रिपुरासुर वध से जुड़ा है। पौराणिक कथा के अनुसार, त्रिपुरासुर एक शक्तिशाली राक्षस था, जिसने अपने तीन किलों (त्रिपुर) के माध्यम से देवताओं और ब्रह्मा, विष्णु, शिव जैसे प्रमुख देवताओं को परेशान किया था। त्रिपुरासुर ने देवताओं से उनकी आशीर्वाद की शक्ति प्राप्त कर ली थी और उसे हराना असंभव सा प्रतीत होता था।
- त्रिपुरासुर के वध के बाद, भगवान शिव ने अपने दिव्य धनुष से तीनों किलों को नष्ट किया।
- इस विजय के प्रतीक स्वरूप, देवताओं ने दीप जलाकर अपनी खुशी और आभार व्यक्त किया।
- यही कारण है कि देव दिवाली का पर्व मनाने की परंपरा शुरू हुई, क्योंकि यह भगवान शिव की विजय और धर्म की अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक है।
देव दिवाली के दिन का ऐतिहासिक महत्व गंगा अवतरण से भी जुड़ा हुआ है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए भगवान शिव ने अपनी जटा में उसे समाहित किया था। जब गंगा पृथ्वी पर अवतरीत हुई, तब भगवान शिव ने इसे अपनी जटाओं में समाहित किया ताकि पृथ्वी पर उसकी बाढ़ न हो जाए। गंगा के अवतरण को भी देव दिवाली से जोड़ा जाता है, क्योंकि यह दिन गंगा की पवित्रता और भगवान शिव की शक्ति का प्रतीक है।
देव दिवाली का एक अन्य ऐतिहासिक पहलू यह है कि यह दिन भगवान शिव और अन्य देवताओं के मिलन का प्रतीक है। देव दिवाली के दिन, देवताओं द्वारा अपने आभार और विजय का उत्सव मनाने का आदान-प्रदान होता है। यह भी माना जाता है कि इस दिन देवता पृथ्वी पर आकर अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं। विशेष रूप से, वाराणसी में, जो भगवान शिव का प्रिय स्थल है, देव दिवाली को एक पवित्र अवसर के रूप में मनाया जाता है।
देव दिवाली, दिवाली के 15 दिन बाद मनाई जाती है, और इसका इतिहास दिवाली के साथ जुड़ा हुआ है। दिवाली, भगवान राम के अयोध्या लौटने और राक्षस रावण के वध के बाद मनाई जाती है, जबकि देव दिवाली का उत्सव देवताओं की विजय और शिव के महत्व को प्रकट करने का अवसर होता है। इस दिन दिवाली के उल्लास और आनंद को देवताओं के स्तर पर मनाने का संकेत मिलता है, जो हिंदू धर्म में उज्जवलता और शुभता का प्रतीक है।
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व वाराणसी के संदर्भ में अत्यधिक है, क्योंकि यह भगवान शिव की प्रमुख नगरी है। वाराणसी में देव दिवाली के दिन जो गंगा आरती और दीपदान होते हैं, वे शुद्ध धार्मिक भावनाओं और भक्तिमय वातावरण का हिस्सा हैं। इसे पवित्रता और आध्यात्मिक उन्नति का दिन माना जाता है, और यह दिन भगवान शिव और गंगा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर होता है।
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व भगवान शिव की विजय, गंगा अवतरण, और देवताओं के साथ धार्मिक मिलन से जुड़ा हुआ है। यह दिन अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, और असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। इसके माध्यम से हम भगवान शिव के दिव्य कार्यों और गंगा की पवित्रता का स्मरण करते हैं और अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। वाराणसी जैसे स्थानों पर यह पर्व धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।
1. त्रिपुरासुर वध और भगवान शिव की विजय
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व मुख्य रूप से त्रिपुरासुर वध से जुड़ा है। पौराणिक कथा के अनुसार, त्रिपुरासुर एक शक्तिशाली राक्षस था, जिसने अपने तीन किलों (त्रिपुर) के माध्यम से देवताओं और ब्रह्मा, विष्णु, शिव जैसे प्रमुख देवताओं को परेशान किया था। त्रिपुरासुर ने देवताओं से उनकी आशीर्वाद की शक्ति प्राप्त कर ली थी और उसे हराना असंभव सा प्रतीत होता था।
- त्रिपुरासुर के वध के बाद, भगवान शिव ने अपने दिव्य धनुष से तीनों किलों को नष्ट किया।
- इस विजय के प्रतीक स्वरूप, देवताओं ने दीप जलाकर अपनी खुशी और आभार व्यक्त किया।
- यही कारण है कि देव दिवाली का पर्व मनाने की परंपरा शुरू हुई, क्योंकि यह भगवान शिव की विजय और धर्म की अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक है।
2. गंगा अवतरण
देव दिवाली के दिन का ऐतिहासिक महत्व गंगा अवतरण से भी जुड़ा हुआ है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए भगवान शिव ने अपनी जटा में उसे समाहित किया था। जब गंगा पृथ्वी पर अवतरीत हुई, तब भगवान शिव ने इसे अपनी जटाओं में समाहित किया ताकि पृथ्वी पर उसकी बाढ़ न हो जाए। गंगा के अवतरण को भी देव दिवाली से जोड़ा जाता है, क्योंकि यह दिन गंगा की पवित्रता और भगवान शिव की शक्ति का प्रतीक है।
3. भगवान शिव और देवताओं का मिलन
देव दिवाली का एक अन्य ऐतिहासिक पहलू यह है कि यह दिन भगवान शिव और अन्य देवताओं के मिलन का प्रतीक है। देव दिवाली के दिन, देवताओं द्वारा अपने आभार और विजय का उत्सव मनाने का आदान-प्रदान होता है। यह भी माना जाता है कि इस दिन देवता पृथ्वी पर आकर अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं। विशेष रूप से, वाराणसी में, जो भगवान शिव का प्रिय स्थल है, देव दिवाली को एक पवित्र अवसर के रूप में मनाया जाता है।
4. दिवाली के बाद का उत्सव
देव दिवाली, दिवाली के 15 दिन बाद मनाई जाती है, और इसका इतिहास दिवाली के साथ जुड़ा हुआ है। दिवाली, भगवान राम के अयोध्या लौटने और राक्षस रावण के वध के बाद मनाई जाती है, जबकि देव दिवाली का उत्सव देवताओं की विजय और शिव के महत्व को प्रकट करने का अवसर होता है। इस दिन दिवाली के उल्लास और आनंद को देवताओं के स्तर पर मनाने का संकेत मिलता है, जो हिंदू धर्म में उज्जवलता और शुभता का प्रतीक है।
5. वाराणसी की विशेषता
देव दिवाली का ऐतिहासिक महत्व वाराणसी के संदर्भ में अत्यधिक है, क्योंकि यह भगवान शिव की प्रमुख नगरी है। वाराणसी में देव दिवाली के दिन जो गंगा आरती और दीपदान होते हैं, वे शुद्ध धार्मिक भावनाओं और भक्तिमय वातावरण का हिस्सा हैं। इसे पवित्रता और आध्यात्मिक उन्नति का दिन माना जाता है, और यह दिन भगवान शिव और गंगा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर होता है।
पञ्चाङ्ग कैलेण्डर 03 Dec 2024 (उज्जैन)
आज का पञ्चाङ्ग
दिनांक: 2024-12-03
मास: मार्गशीर्ष
दिन: मंगलवार
पक्ष: शुक्ल पक्ष
तिथि: द्वितीया तिथि 01:09 PM तक उपरांत तृतीया
नक्षत्र: नक्षत्र मूल 04:41 PM तक उपरांत पूर्वाषाढ़ा
शुभ मुहूर्त: अभिजीत मुहूर्त - 11:50 AM – 12:31 PM
राहु काल: 2:45 PM – 4:02 PM
यमघंट: 9:36 AM – 10:53 AM
शक संवत: 1946, क्रोधी
विक्रम संवत: 2081, पिंगल
दिशाशूल: उत्तर
आज का व्रत त्यौहार: